
बिहार में इस साल के अंत में चुनाव होने हैं। सभी पार्टियां चुनाव की तैयारियों में जुट चुकी हैं। आज हम आपको फुलपरास विधानसभा सीट के बारे में बताएंगे। जननायक कर्पूरी ठाकुर 1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद यहां से विधायक बने थे।
मधुबनी का सियासी केंद्र – फुलपरास
बिहार के 38 जिलों में से एक मधुबनी जिला भी और ये भी कुल 10 विधानसभा क्षेत्रों में बंटा है, जिनमें फुलपरास भी शामिल है। यह सीट झंझारपुर लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आती है। फुलपरास में पहली बार चुनाव 1952 में हुआ था, और शुरुआत के तीन चुनावों में कांग्रेस का बोलबाला रहा।
कांग्रेस का शुरुआती दबदबा
1952 से लेकर 1962 तक कांग्रेस ने लगातार तीन बार इस सीट पर जीत हासिल की। काशीनाथ मिश्र ने सोशलिस्ट पार्टी के देवा नारायण गुरमैता को 6843 वोट से हराया था। और 1957 और 1962 के चुनावों में भी फुलपरास सीट कांग्रेस के खाते में गई। दोनों बार कांग्रेस के रसिक लाल यादव ने यहां से जीत दर्ज की। 1957 में उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के योगेंद्र झा को 1,716 वोट से हराया। वहीं, 1962 में सोशलिस्ट पार्टी के धनिक लाल मंडल को केवल 728 वोट से मात दी।
1967: धनिक लाल मंडल ने लिया पिछली हार का बदला
तीन चुनावों से जीत रही कांग्रेस को 1967 में हार का सामना करना पड़ा था। सीट पर लगातार दो बार जीत दर्ज कर चुके रसिक लाल यादव को 1967 में हार मिली। यादव को संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के धनिक लाल मंडल ने हराया। इसके साथ ही उन्होंने 1962 में मिली 728 वोट की हार का बदला ले लिया।
1969 में एक बार फिर धनिक लाल मंडल जीते। इस बार कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही। दूसरे नंबर पर कांग्रेस के टिकट पर दो बार विधायक रहे और 1969 में निर्दलीय चुनाव लड़ रहे रसिक लाल यादव रहे। कांग्रेस ने उस चुनाव में रसिक लाल का टिकट काटकर सोने लाल चंद को दिया था। चंद को महज 4,621 वोट मिले। वे अपनी जमानत भी नहीं बचा सके और तीसरे नंबर पर रहे। 1972 में फुलपरास सीट पर फिर से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) ने जीत दर्ज की। 1972 के चुनाव में संसोपा के उत्तम लाल यादव ने कांग्रेस के खुशी लाल कामत को 17,647 वोट से हरा दिया।
कर्पूरी ठाकुर की एंट्री और फुलपरास की ऐतिहासिक भूमिका
1977 में हुए चुनाव में जनता पार्टी ने बड़ी जीत दर्ज की, उन्होंने कांग्रेस के उत्तम लाल यादव को 34,993 वोट के बड़े अंतर से हराया। इस चुनाव में जनता पार्टी को राज्य की 324 सीटों में से 214 सीटों पर जीत मिली। कांग्रेस महज 57 सीट पर सिमट गई और देवेंद्र प्रसाद यादव फुलपरास से विधायक बने। बाद में जब कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने इस सीट से उपचुनाव जीतकर विधानसभा में प्रवेश किया। कर्पूरी ठाकुर सामाजिक न्याय के एक मज़बूत स्तंभ माने जाते हैं, जिन्होंने पिछड़े वर्गों के लिए कई क्रांतिकारी फैसले लिए। कर्पूरी ठाकुर साधारण नाई परिवार में जन्मे थे। कहा जाता है कि पूरी जिंदगी उन्होंने कांग्रेस विरोधी राजनीति की और अपना सियासी मुकाम हासिल किया। यहां तक कि आपातकाल के दौरान तमाम कोशिशों के बावजूद इंदिरा गांधी उन्हें गिरफ्तार नहीं करवा सकी थीं।
1970 और 1977 में मुख्यमंत्री बने थे कर्पूरी ठाकुर
कर्पूरी ठाकुर 1970 में पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने। 22 दिसंबर 1970 को उन्होंने पहली बार राज्य की कमान संभाली थी। उनका पहला कार्यकाल महज 163 दिन का रहा था। 1977 में कर्पूरी ठाकुर दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। अपना यह कार्यकाल भी वह पूरा नहीं कर सके। इसके बाद भी महज दो साल से भी कम समय के कार्यकाल में उन्होंने समाज के दबे-पिछड़ों लोगों के हितों के लिए काम किए।
बिहार में मैट्रिक तक पढ़ाई मुफ्त की दी। वहीं, राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया। उन्होंने अपने कार्यकाल में गरीबों, पिछड़ों और अति पिछड़ों के हक में ऐसे तमाम काम किए, जिससे बिहार की सियासत में आमूलचूल परिवर्तन आ गया। इसके बाद कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक ताकत में जबरदस्त इजाफा हुआ और वो बिहार की सियासत में समाजवाद का बड़ा चेहरा बन गए।
कर्पूरी ठाकुर के शागिर्द हैं लालू और नीतीश
बिहार में समाजवाद की राजनीति कर रहे लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार कर्पूरी ठाकुर के ही शागिर्द हैं। जनता पार्टी के दौर में लालू और नीतीश ने कर्पूरी ठाकुर की उंगली पकड़कर सियासत के गुर सीखे। ऐसे में जब लालू यादव बिहार की सत्ता में आए तो उन्होंने कर्पूरी ठाकुर के कामों को आगे बढ़ाया। वहीं, नीतीश कुमार ने भी अति पिछड़े समुदाय के हक में कई काम किए।
राजनीतिक उठापटक और बदलते समीकरण
1980 के बाद इस सीट पर जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और जेडीयू के बीच बारी-बारी से सत्ता आती रही। 2005 के दोनों चुनावों में समाजवादी पार्टी के देवनाथ यादव ने जीत दर्ज की लेकिन 2010 से जदयू का दबदबा शुरू हुआ, जब गुलजार देवी ने लगातार दो बार जीत दर्ज की। 2020 में शीला कुमारी ने कांग्रेस के कृपानाथ पाठक को हराकर सीट पर जदयू का कब्जा बरकरार रखा।
1990 के विधानसभा चुनाव में फुलपरास से जनता दल के राम कुमार यादव ने कांग्रेस के देव नाथ यादव को 5,157 वोट से हरा दिया था। 1995 में कांग्रेस को देव नाथ यादव ने राम कुमार यादव से 1990 में मिली हार का बदला ले लिया। इस चुनाव में उन्होंने जनता दल के राम कुमार यादव को 3,344 वोट से हराया। साल 2000 में फुलपरास सीट पर एक बार फिर मुख्य मुकाबला राम कुमार यादव और देव नाथ यादव के बीच हुआ। इस बार जनता दल (यूनाइटेड) के टिकट पर उतरे राम कुमार यादव को जीत मिली। उन्होंने समाजवादी पार्टी के टिकट पर उतरे देवनाथ यादव को 6,008 वोट से हराया।
2005: समाजवादी पार्टी की जीत
2005 पहली बार फरवरी में और दूसरी बार अक्तूबर में विधानसभा चुनाव हुए थे। फरवरी 2005 में फुलपरास सीट से समाजवादी पार्टी के देवनाथ यादव को जीत मिली। 1995 में कांग्रेस के टिकट पर जीतने वाले देव नाथ यादव एक बार फिर राम कुमार यादव को हराकर विधानसभा पहुंचे। राम कुमार यादव इस चुनाव में राजद के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे। अक्तूबर 2005 में हुए चुनाव में भी समाजवादी पार्टी के देवनाथ यादव को जीत मिली। इस चुनाव में देवनाथ यादव ने जदयू के भारत भूषण मंडल को 4,978 वोट से हराया।
2010: जदयू के दबदबे का दौर
2010 के विधानसभा चुनाव में फुलपरास से जनता दल यूनाइटेड की गुलजार देवी ने राजद के वीरेंद्र कुमार चौधरी ने 12344 वोट से हरा दिया था। 2015 में फिर से मौजूदा विधायक गुलजार देवी ने जीत दर्ज की थी। गुलजार देवी ने भाजपा के राम सुन्दर यादव को 13415 वोट से हरा दिया था। 2020 में जनता दल यूनाइटेड से शीला कुमारी को जीत मिली। शीला कुमारी ने कांग्रेस के कृपानाथ पाठक को 10966 वोट से हरा दिया था।
अबकी बार क्या बदलेगा समीकरण?
फुलपरास विधानसभा सीट इतिहास, संघर्ष और समाजवादी राजनीति का प्रतीक रही है। इस बार के चुनाव में देखना दिलचस्प होगा कि क्या जदयू इस पर अपना वर्चस्व कायम रख पाएगी या कोई नया चेहरा उभरेगा।
पिछले नतीजे
2020
Sheela Kumari JD(U)
वोट 75,116
विजेता पार्टी का वोट % 41.3%
जीत अंतर % 6.1%
2015
Guljar Devi JD(U)
वोट 64,368
विजेता पार्टी का वोट % 40.6 %
जीत अंतर % 8.5 %
Published By-Anjali Mishra