
डॉ. अमरेश श्रीवास्तव
MD, DPM, FRC Psych, FRCPC, FAPA
मनोचिकित्सक
निदेशक, मानसिक शक्ति फाउंडेशन
मानसिक सेहत आज के दौर में बड़े पैमाने पर लोगों के जीवन पर असर डाल रहा है। देखने में आ रहा है कि उम्र के किसी भी पड़ाव पर लोग मनोरोग की चपेट में आ जा रहे हैं। बचपन से थोड़ा आगे बढ़ें तो किशोरावस्था खासतौर पर कॉलेज की दहलीज पर पूरे जोश और अपने सपनों के साथ कदम रखने वाले छात्र के जीवन में भी ये अपने पैर पसार चुका है। कॉलेज में जब छात्र के सामने कई नई चुनौतियां आने लगती हैं, तो उसे अपने अब तक देखे सपनों समेत सब कुछ धुंधला सा नजर आने लगता है। तनाव का यह रूप शिक्षा का दबाव, समाज की उनसे अपेक्षा, नए लोगों का जीवन में प्रवेश और अन्य कई रूपों में भेष बदलकर आती हैं। ऐसे में कई बार कच्ची उम्र का कच्चा मन जल्द ही अवसाद की चपेट में आ जाता है। भारत में तो इसके मामले आज सबसे ज्यादा निकल कर सामने आ रहे हैं। हालात तब और खराब हो जाते हैं, जब बात किशोर और युवाओं के आत्महत्या तक जा पहुंचती है।
हाल में ही हुए एक राष्ट्रीय सर्वे के नतीजों पर गौर करें तो पता चलता है कि इस समस्या की जड़ें छात्रों में कितनी गहराई तक फैल चुकी हैं। इस सर्वे के अनुसार, इस समय पांच में से एक छात्र मानसिक तनाव की चुनौतियों से गुजर रहा है। यह तनाव मध्यम से लेकर गंभीर स्तर तक का है। वहीं इस समस्या को लेकर होने वाला संकोच, मानसिक सेहत को नजरअंदाज करने की आदत और शुरुआती स्तर पर इसकी पहचान के लिए किसी सही तंत्र के न होने की वजह से इसका निदान ही नहीं हो पाता।
सर्वे के आकंडों पर आगे बढ़ें तो पूरे भारतीय समाज के लिए छात्रों की मानसिक सेहत सबसे अधिक चिंता में डालती है, क्योंकि दुनिया में छात्रों द्वारा आत्महत्या के मामलों में भारत सबसे उपर है। एनसीआरबी (2022) के अनुसार, हर साल भारत में 13,000 से अधिक छात्र आत्महत्या करते हैं - उनमें से कई शैक्षिक तनाव के कारण यह कदम उठा बैठते हैं। यानी की बात हमारे आस-पास की भी हो सकती है। यदि तथ्यों पर गंभीरता से विचार करें तो यह सभी घटनाएं अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि सभी की जड़ें एक ही जगह पर जाती हैं और यह साफ तौर पर बतलाती हैं कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली न केवल छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य के मोर्चे पर विफल हो रही है, बल्कि इसे कफी हद तक नुकसान भी पहुंचा रही है।
ये मुद्दे आज बेहद ही जटिल और प्रदर्शन-आधारित शिक्षा प्रणाली से जुड़े हुए हैं, जो कि भावनात्मक कल्याण पर शैक्षिक परिणामों को प्राथमिकता देती है। शैक्षिक प्रतिस्पर्धा, सफलता को लेकर समाज में बनाई कई संकीर्ण परिभाषाओं पर खरे उतरने का दबाव और शिक्षा के क्षेत्र में उपलब्ध विकल्पों पर खुद से निर्णय लेने के अधिकारों पर पड़ने वाला दबाव एक तरह से भारतीय छात्रों के लिए मनोवैज्ञानिक खतरों के रूप में पहचाना गया है। (Deb et al., 2015; Misra et al., 2021)
सिस्टम के इसी कठोर रवैये से कई महत्वपूर्ण सवाल उठते हैं:
1. क्या वर्तमान शिक्षा प्रणाली मानसिक कल्याण के लिए एक बाधा है?
2. क्या यह प्रणाली छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए लचीलापन प्रदान करती है?
3. क्या शैक्षिक ढांचा छात्रों के मानसिक कल्याण से जुड़े लक्ष्यों के साथ विरोधाभासी है या पूरक है?